क्या खाएंगे उसकी पत्नी और बच्चे
नभ में सूरज निकला और प्रभात हुई
कष्टकारी क्लिष्ट काली रात की रात हुई
रात का झाड़ा थोड़ा तो कम हुआ नहीं
दरिद्र का दुख भी थोड़ा तो कम हुआ नहीं
बढ़ेगी रोटी के जुगाड की चिंता
क्या खाएंगे उसकी पत्नी और बच्चा
अबकी बार खेतो में फ़सल नहीं है
हो भी कहा से कुऑ में पानी नहीं है
दरिद्रता का हाल बुरा है सिर पे छत
परिवार में किसी के पेट में अन्न नहीं है
सिर छत थी जो साहूकार ने छीन ली
खेतों में फसल थी जो कुदरत ने लेली
मेरा क्या दोष मैने जीवन भर खेती की
कोई दूसरा काम मैने सीखा नहीं
लोगों को धोका देना आता नहीं
अब कहा से करू रोटी का जुगाड
क्या खाएंगे उसकी पत्नी ओर बच्चे
क्या खुले आसमान के तले
भीख में जो खाने को मिले
उसे खाकर सो जाएंगे
केसे आगे बढ़ेंगे मेरे बच्चे
केसे लड़ेंगे स्वार्थ भारी दुनिया से
क्या कभी गरीबी से निकाल पाएंगे मेरे बच्चे
या फिर गरीबी में मार जाएंगे मेरे बच्चे
क्या खाएंगे उसकी पत्नी ओर बच्चें
फिर से वह क्लिष्ट कली रात आयेगी
फिर से झाड़ा आयेगा
ठंड का खतरा बढ़ जायेगा
क्या अबकी प्रभा सुख का सूरज उगेगा
यही आस जीवन जीता रहेगा
क्या खाएंगे मेरी पत्नी और बच्चे
शिवराज खटीक
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